हकीकत की दौड़
शाम का समय धीरे-धीरे बीत रहा था, सूरज अपनी धीमी गति से डूब रहा था, लेकिन मेरे मन में विचारों की हलचल तेज़ हो रही थी। इस विरोधाभास ने मुझे जीवन के सही-गलत, पाप-पुण्य और सच-झूठ की दौड़ पर सोचने पर मजबूर किया। अंत में, समझ आई कि हकीकत ही शेष रहती है, बाकी सब भ्रम है। यही भावना मेरी कविता "हकीकत की दौड़" का मुख्य सार है।
कविता


हकीकत की दौड़
दौड़ शुरू हुई,
सच-झूठ, सही-गलत, पाप-पुण्य में
और खत्म हुई,
हकीकत और तथ्य में...
क्या है सत्य?
क्या असत्य?
क्या है पाप?
क्या है पुण्य?
क्या गलत है?
क्या सही है?
जानता ना हर कोई,
जानता है बस यही,
हकीकत ही है रही।
कर्ण रक्त पांडवों का,
पर खड़ा है शत्रु द्वारा,
कैकई ने राज्य फोड़ा,
क्या माँ का कोई भाष्य होता?
कहा यही है प्रकृति ने,
हकीकत ही शेष सारा,
हकीकत ही शेष सारा,
हकीकत ही शेष सारा...